खेती का ख्याल…

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नई दिल्ली(एजेंसी):वित्त मंत्री अरुण जेटली का यह तीसरा बजट है और यह पिछले दोनों बजट से अलग है। पिछले दोनों बजट से यह शिकायत सभी को रही कि वे अत्यंत सुरक्षित अंदाज में बनाए गए थे, जिनमें कोई बड़ा विचार या दिशा नहीं दिखी थी। इस बजट से यह शिकायत नहीं होती।

इसकी प्राथमिकताएं बहुत साफ हैं। इसमें सबसे ज्यादा तरजीह ग्रामीण और कृषि क्षेत्र को दी गई है। इसके बाद बुनियादी ढांचे को महत्व दिया गया है, साथ ही वित्तीय प्रशासन और प्रबंधन के उपाय हैं। ग्रामीण और कृषि क्षेत्र को तरजीह देना जरूरी भी था, बल्कि यह काम काफी देर से किया गया है। पिछले दो साल से खराब मानसून की वजह से लगभग आधे देश में सूखे जैसी स्थिति है। खेती की विकास दर ठहर-सी गई है। अब भी खेती पर लगभग 60 प्रतिशत जनता पूरी तरह या आंशिक रूप से निर्भर है। ग्रामीण क्षेत्रों की ऐसी बदहाली का असर पूरे देश पर पड़ा है। बाकी वक्त से भारत के उद्योगों को सबसे बड़ा सहारा ग्रामीण उपभोग में लगातार बढ़ोतरी का था। खेती की बदहाली से गांवों में मांग घटी है, जिसका सीधा असर कई उद्योगों पर पड़ा है।

इस साल मानसून के बेहतर रहने की काफी संभावना है। ऐसा हुआ, तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था काफी तेजी से विकास कर सकती है। आंकड़े यह बताते हैं कि गरीबी को कम करने और लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर उठाने में सबसे ज्यादा प्रभावशाली खेती की विकास दर का बढ़ना है। अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में सन 2022 तक खेती पर निर्भर परिवारों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य सचमुच हासिल किया जा सका, तो शायद ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी नाममात्र को ही रह जाएगी। लेकिन इस लक्ष्य को पाने के लिए खेती में सुधार जारी रखने होंगे। मनरेगा को इस बजट में महत्व मिला है, यह उल्लेखनीय है।

राजग सरकार के बड़े नेता मनरेगा के मुखर आलोचक रहे हैं और इसे संप्रग का पैसा बरबाद करने वाला कार्यक्रम बताते रहे हैं, लेकिन इस बार वित्त मंत्री ने व्यावहारिक समझदारी दिखाते हुए इस कार्यक्रम के महत्व को समझा है। ग्रामीणों को आर्थिक सहारा देने में इस कार्यक्रम की बड़ी भूमिका है। इसमें सुधार की बहुत जरूरत है, इसमें शक नहीं और यह उम्मीद की जानी चाहिए कि सुधार भी जरूर किए जाएंगे। खेती के लिए कर्ज का प्रावधान बढ़ाना अच्छा कदम है। साथ ही, एकीकृत राष्ट्रीय कृषि बाजार बनाने की पहल भी कृषि उत्पादों के थोक और खुदरा बाजार में मौजूद विकृतियों को दूर कर पाएगी। लेकिन यह क्षेत्र राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है, इसलिए इसे प्रभावशाली ढंग से लागू करने के लिए काफी राजनीतिक समझदारी और लचीलेपन की जरूरत होगी। इसके अलावा भी कई सारी योजनाओं पर अमल राजनीतिक समन्वय और सहयोग पर निर्भर होगा, और आज के राजनीतिक माहौल में इसका काफी अभाव दिखता है।

बजट घाटे को 3.5 प्रतिशत पर सीमित रखने की बात पर टिके रहना अच्छा कहा जाएगा, क्योंकि इससे सरकार की विश्वसनीयता बढ़ती है। हालांकि कई लोग मान रहे थे कि अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कुछ ज्यादा खर्च करने में कोई हर्ज नहीं है। इस संदर्भ में एक सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि वित्त मंत्री ने काफी सारे खचार्ें की घोषणा तो कर दी है, लेकिन क्या इतना पैसा वह जुटा पाएंगे? अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है, उसमें आय बढ़ाना बहुत मुश्किल है। जीडीपी के मुकाबले टैक्स का अनुपात बढ़ाने की कुछ ज्यादा कोशिशें जरूरी हैं। जो उम्मीदें अगले वित्त वर्ष के लिए इस बजट ने बंधाई हैं, उनमें से सभी नहीं, तो ज्यादातर भी पूरी हो जाएं, तो इसे बहुत कामयाब बजट कहा जाएगा।

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