शायद ही सुनी हो बापू के जीवन से जुड़ी ये 3 कहानियां, पढ़ें

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नई दिल्ली(एजेंसी):2 अक्टूबर यानि गांधीजी की जयंती के मौके पर कुछ ऐसी रोचक किस्से बता रहे हैं, जिन्हें शायद ही आपने कभी सुनी हो। हालांकि उन्होनें ये बातें अपनी आत्मकथा में लिखी है, लेकिन यदि आप उनके बचपन में हुए इस किस्से को पढ़ेंगे तो जान पाएंगे कि आखिर गांधी जी क्यों महात्मा कहलाते थे? आज हम उनके जीवन में घटी 3 रोचक कहानियां बता रहे हैं। आइए जानते हैं, 2 अ2 अक्टूबर यानि गांधीजी की जयंती के मौके पर कुछ ऐसी रोचक किस्से बता रहे हैं, जिन्हें शायद ही आपने कभी सुनी हो। हालांकि उन्होनें ये बातें अपनी आत्मकथा में लिखी है, लेकिन यदि आप उनके बचपन में हुए इस किस्से को पढ़ेंगे तो जान पाएंगे कि आखिर गांधी जी क्यों महात्मा कहलाते थे? आज हम उनके जीवन में घटी 3 रोचक कहानियां बता रहे हैं। आइए जानते हैं, गांधीजी के जिंदगी से जुड़ी कहानी उन्हीं की जुबानी…

1. जब नकल न करने पर खुद को कहा बेवकूफ
हाईस्कूल के पहले ही वर्ष की परीक्षा के समय की एक घटना उल्लेखनीय हैं। शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर जाइल्स स्कूल में निरीक्षण करने आए थे। उन्होंने पहली कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के 5 शब्द लिखाए। उनमें एक शब्द ‘केटल’ था। मैंने उसके हिज्जे गलत लिखे थे।
शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा? मुझे यह ख्याल ही नहीं हो सका कि शिक्षक मुझे पास वाले लड़के की पट्टी देखकर हिज्जे सुधार लेने को कहते हैं। मैंने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें। सब लड़कों के पांचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेवकूफ ठहरा। शिक्षक ने मुझे मेरी बेवकूफी बाद में समझाई, लेकिन मेरे मन पर कोई असर न हुआ। मैं दूसरे लड़कों की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी न सीख सका।
इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम न हुआ। बड़ों के दोष न देखने का गुण मुझ में स्वभाव से ही था। बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मुझे मालूम हुए थे। फिर भी उनके प्रति मेरा आदर बना ही रहा। मैं यह जानता था कि बड़ों का आज्ञा का पालन करना चाहिए। वे जो कहें सो करना करे उसके काजी न बनना।

2. एक किताब ने बदल दी गांधीजी की जिंदगी
इसी समय के दो और प्रसंग मुझे हमेशा याद रहे हैं। साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था। सबक याद करना चाहिए, उलाहना सहा नहीं जाता, शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं, इसलिए मैं पाठ याद करता था। लेकिन मन अलसा जाता, इससे अक्सर सबक कच्चा रह जाता। ऐसी हालत में दूसरी कोई चीज पढ़ने की इच्छा क्यों कर होती? किन्तु पिताजी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था श्रवण-पितृभक्ति नाटक। मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया। उन्हीं दिनों शीशे मे चित्र दिखाने वाले भी घर-घर आते थे। उनके पास भी श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को कांवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता हैं।
दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिए। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना भी सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिताजी ने एक बाजा दिया भी दिया था।

3. कैसे पड़ा राजा हरिश्चन्द्र का प्रभाव
इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। हरिश्चन्द्र का आख्यान था। उसे बार-बार देखने की इच्छा होती थी। लेकिन यूं बार-बार जाने कौन देता? पर अपने मन में मैंने उस नाटक को सैकड़ों बार खेला होगा।
हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते? यह धुन बनी रहती। हरिश्चन्द्र पर जैसी विपत्तियां पड़ी, वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य हैं। मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी विपत्तियां हरिश्चन्द्र पर पड़ी होगी। हरिश्चन्द्र के दुःख देखकर उसका स्मरण करके मैं खूब रोया हूं। आज मेरी बुद्धि समझती हैं कि हरिश्चन्द्र कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था। फिर भी मेरे विचार में हरिश्चन्द्र और श्रवण आज भी जीवित हैं। मैं मानता हूं कि आज भी उन नाटकों को पढ़ूं तो आज भी मेरी आंखों से आंसू बह निकलेंगे।क्टूबर यानि गांधीजी की जयंती के मौके पर कुछ ऐसी रोचक किस्से बता रहे हैं, जिन्हें 2 अक्टूबर यानि गांधीजी की जयंती के मौके पर कुछ ऐसी रोचक किस्से बता रहे हैं, जिन्हें शायद ही आपने कभी सुनी हो। हालांकि उन्होनें ये बातें अपनी आत्मकथा में लिखी है, लेकिन यदि आप उनके बचपन में हुए इस किस्से को पढ़ेंगे तो जान पाएंगे कि आखिर गांधी जी क्यों महात्मा कहलाते थे? आज हम उनके जीवन में घटी 3 रोचक कहानियां बता रहे हैं। आइए जानते हैं, गांधीजी के जिंदगी से जुड़ी कहानी उन्हीं की जुबानी…

1. जब नकल न करने पर खुद को कहा बेवकूफ
हाईस्कूल के पहले ही वर्ष की परीक्षा के समय की एक घटना उल्लेखनीय हैं। शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर जाइल्स स्कूल में निरीक्षण करने आए थे। उन्होंने पहली कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के 5 शब्द लिखाए। उनमें एक शब्द ‘केटल’ था। मैंने उसके हिज्जे गलत लिखे थे।
शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा? मुझे यह ख्याल ही नहीं हो सका कि शिक्षक मुझे पास वाले लड़के की पट्टी देखकर हिज्जे सुधार लेने को कहते हैं। मैंने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें। सब लड़कों के पांचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेवकूफ ठहरा। शिक्षक ने मुझे मेरी बेवकूफी बाद में समझाई, लेकिन मेरे मन पर कोई असर न हुआ। मैं दूसरे लड़कों की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी न सीख सका।
इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम न हुआ। बड़ों के दोष न देखने का गुण मुझ में स्वभाव से ही था। बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मुझे मालूम हुए थे। फिर भी उनके प्रति मेरा आदर बना ही रहा। मैं यह जानता था कि बड़ों का आज्ञा का पालन करना चाहिए। वे जो कहें सो करना करे उसके काजी न बनना।

2. एक किताब ने बदल दी गांधीजी की जिंदगी
इसी समय के दो और प्रसंग मुझे हमेशा याद रहे हैं। साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था। सबक याद करना चाहिए, उलाहना सहा नहीं जाता, शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं, इसलिए मैं पाठ याद करता था। लेकिन मन अलसा जाता, इससे अक्सर सबक कच्चा रह जाता। ऐसी हालत में दूसरी कोई चीज पढ़ने की इच्छा क्यों कर होती? किन्तु पिताजी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था श्रवण-पितृभक्ति नाटक। मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया। उन्हीं दिनों शीशे मे चित्र दिखाने वाले भी घर-घर आते थे। उनके पास भी श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को कांवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता हैं।
दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिए। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना भी सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिताजी ने एक बाजा दिया भी दिया था।

3. कैसे पड़ा राजा हरिश्चन्द्र का प्रभाव
इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। हरिश्चन्द्र का आख्यान था। उसे बार-बार देखने की इच्छा होती थी। लेकिन यूं बार-बार जाने कौन देता? पर अपने मन में मैंने उस नाटक को सैकड़ों बार खेला होगा।
हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते? यह धुन बनी रहती। हरिश्चन्द्र पर जैसी विपत्तियां पड़ी, वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य हैं। मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी विपत्तियां हरिश्चन्द्र पर पड़ी होगी। हरिश्चन्द्र के दुःख देखकर उसका स्मरण करके मैं खूब रोया हूं। आज मेरी बुद्धि समझती हैं कि हरिश्चन्द्र कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था। फिर भी मेरे विचार में हरिश्चन्द्र और श्रवण आज भी जीवित हैं। मैं मानता हूं कि आज भी उन नाटकों को पढ़ूं तो आज भी मेरी आंखों से आंसू बह निकलेंगे।शायद ही आपने कभी सुनी हो। हालांकि उन्होनें ये बातें अपनी आत्मकथा में लिखी है, लेकिन यदि आप उनके बचपन में हुए इस किस्से को पढ़ेंगे तो जान पाएंगे कि आखिर गांधी जी क्यों महात्मा कहलाते थे? आज हम उनके जीवन में घटी 3 रोचक कहानियां बता रहे हैं। आइए जानते हैं, गांधीजी के जिंदगी से जुड़ी कहानी उन्हीं की जुबानी…

1. जब नकल न करने पर खुद को कहा बेवकूफ
हाईस्कूल के पहले ही वर्ष की परीक्षा के समय की एक घटना उल्लेखनीय हैं। शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर जाइल्स स्कूल में निरीक्षण करने आए थे। उन्होंने पहली कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के 5 शब्द लिखाए। उनमें एक शब्द ‘केटल’ था। मैंने उसके हिज्जे गलत लिखे थे।
शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा? मुझे यह ख्याल ही नहीं हो सका कि शिक्षक मुझे पास वाले लड़के की पट्टी देखकर हिज्जे सुधार लेने को कहते हैं। मैंने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें। सब लड़कों के पांचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेवकूफ ठहरा। शिक्षक ने मुझे मेरी बेवकूफी बाद में समझाई, लेकिन मेरे मन पर कोई असर न हुआ। मैं दूसरे लड़कों की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी न सीख सका।
इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम न हुआ। बड़ों के दोष न देखने का गुण मुझ में स्वभाव से ही था। बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मुझे मालूम हुए थे। फिर भी उनके प्रति मेरा आदर बना ही रहा। मैं यह जानता था कि बड़ों का आज्ञा का पालन करना चाहिए। वे जो कहें सो करना करे उसके काजी न बनना।

2. एक किताब ने बदल दी गांधीजी की जिंदगी
इसी समय के दो और प्रसंग मुझे हमेशा याद रहे हैं। साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था। सबक याद करना चाहिए, उलाहना सहा नहीं जाता, शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं, इसलिए मैं पाठ याद करता था। लेकिन मन अलसा जाता, इससे अक्सर सबक कच्चा रह जाता। ऐसी हालत में दूसरी कोई चीज पढ़ने की इच्छा क्यों कर होती? किन्तु पिताजी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था श्रवण-पितृभक्ति नाटक। मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया। उन्हीं दिनों शीशे मे चित्र दिखाने वाले भी घर-घर आते थे। उनके पास भी श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को कांवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता हैं।
दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिए। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना भी सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिताजी ने एक बाजा दिया भी दिया था।

3. कैसे पड़ा राजा हरिश्चन्द्र का प्रभाव
इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। हरिश्चन्द्र का आख्यान था। उसे बार-बार देखने की इच्छा होती थी। लेकिन यूं बार-बार जाने कौन देता? पर अपने मन में मैंने उस नाटक को सैकड़ों बार खेला होगा।
हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते? यह धुन बनी रहती। हरिश्चन्द्र पर जैसी विपत्तियां पड़ी, वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य हैं। मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी विपत्तियां हरिश्चन्द्र पर पड़ी होगी। हरिश्चन्द्र के दुःख देखकर उसका स्मरण करके मैं खूब रोया हूं। आज मेरी बुद्धि समझती हैं कि हरिश्चन्द्र कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था। फिर भी मेरे विचार में हरिश्चन्द्र और श्रवण आज भी जीवित हैं। मैं मानता हूं कि आज भी उन नाटकों को पढ़ूं तो आज भी मेरी आंखों से आंसू बह निकलेंगे।गांधीजी के जिंदगी से जुड़ी कहानी उन्हीं की जुबानी…

1. जब नकल न करने पर खुद को कहा बेवकूफ
हाईस्कूल के पहले ही वर्ष की परीक्षा के समय की एक घटना उल्लेखनीय हैं। शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर जाइल्स स्कूल में निरीक्षण करने आए थे। उन्होंने पहली कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के 5 शब्द लिखाए। उनमें एक शब्द ‘केटल’ था। मैंने उसके हिज्जे गलत लिखे थे।
शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा? मुझे यह ख्याल ही नहीं हो सका कि शिक्षक मुझे पास वाले लड़के की पट्टी देखकर हिज्जे सुधार लेने को कहते हैं। मैंने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें। सब लड़कों के पांचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेवकूफ ठहरा। शिक्षक ने मुझे मेरी बेवकूफी बाद में समझाई, लेकिन मेरे मन पर कोई असर न हुआ। मैं दूसरे लड़कों की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी न सीख सका।
इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम न हुआ। बड़ों के दोष न देखने का गुण मुझ में स्वभाव से ही था। बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मुझे मालूम हुए थे। फिर भी उनके प्रति मेरा आदर बना ही रहा। मैं यह जानता था कि बड़ों का आज्ञा का पालन करना चाहिए। वे जो कहें सो करना करे उसके काजी न बनना।

2. एक किताब ने बदल दी गांधीजी की जिंदगी
इसी समय के दो और प्रसंग मुझे हमेशा याद रहे हैं। साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था। सबक याद करना चाहिए, उलाहना सहा नहीं जाता, शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं, इसलिए मैं पाठ याद करता था। लेकिन मन अलसा जाता, इससे अक्सर सबक कच्चा रह जाता। ऐसी हालत में दूसरी कोई चीज पढ़ने की इच्छा क्यों कर होती? किन्तु पिताजी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था श्रवण-पितृभक्ति नाटक। मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया। उन्हीं दिनों शीशे मे चित्र दिखाने वाले भी घर-घर आते थे। उनके पास भी श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को कांवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता हैं।
दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिए। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना भी सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिताजी ने एक बाजा दिया भी दिया था।

3. कैसे पड़ा राजा हरिश्चन्द्र का प्रभाव
इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। हरिश्चन्द्र का आख्यान था। उसे बार-बार देखने की इच्छा होती थी। लेकिन यूं बार-बार जाने कौन देता? पर अपने मन में मैंने उस नाटक को सैकड़ों बार खेला होगा।
हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते? यह धुन बनी रहती। हरिश्चन्द्र पर जैसी विपत्तियां पड़ी, वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य हैं। मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी विपत्तियां हरिश्चन्द्र पर पड़ी होगी। हरिश्चन्द्र के दुःख देखकर उसका स्मरण करके मैं खूब रोया हूं। आज मेरी बुद्धि समझती हैं कि हरिश्चन्द्र कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था। फिर भी मेरे विचार में हरिश्चन्द्र और श्रवण आज भी जीवित हैं। मैं मानता हूं कि आज भी उन नाटकों को पढ़ूं तो आज भी मेरी आंखों से आंसू बह निकलेंगे।

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