नई दिल्ली(एजेंसी):थैलेसीमिया एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचने वाला ऐसा रक्त विकार है, जिससे शरीर में हीमोग्लोबिन बनना बंद हो जाता है। हीमोग्लोबिन लाल रक्त कोशिकाओं (आरबीसी) में प्रोटीन अणु के रूप में आक्सीजन वाहक है। थैलेसीमिया बीमारी में आरबीसी का अत्यधिक क्षय होने लगता है, जिससे एनीमिया हो जाता है। हमारे देश में हर वर्ष 10 से 12 हजार बच्चे थैलेसीमिया के साथ जन्म लेते हैं। वर्तमान में इस बीमारी से ग्रस्त लोगों की संख्या 1.5 लाख से अधिक है। इसी तरह वंशानुगत रक्त विकार वाली बीमारी सिकल सेल का भी प्रभाव देश के एक बड़े हिस्से में वर्षों से बना हुआ है। इन दोनों ही बीमारियों को रोकने के लिए प्रयास तो हो रहे हैं, लेकिन बड़ी चुनौती अब भी बरकरार है।
दो तरह की होती है यह बीमारी
थैलेसीमिया दो तरह की होता है। पहला, मेजर थैलेसीमिया, जो गंभीर तरह की बीमारी है। इसमें बच्चे के जन्म के कुछ ही महीनों बाद उसमें खून बनना बंद हो जाता है। रक्त जांच से थैलेसीमिया की पुष्टि होती है। सामान्य तौर पर माता-पिता में थैलेसीमिया का जीन होता है और दोनों से यह बच्चे में आ जाता है। दूसरा, माइनर थैलेसीमिया, जो अपेक्षाकृत कम चिंताजनक है। हालांकि, सामान्य लोगों की तुलना में इनका हीमोग्लोबिन कम रहता है, लेकिन उनकी जिंदगी के लिए कोई खास खतरा नहीं होता।
बार-बार रक्त चढ़ाने के दुष्प्रभाव भी
मेजर थैलेसीमिया जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है, जिससे बार-बार रक्त चढ़ाने की जरूरत पड़ती है। इससे बच्चे के शरीर में आयरन की मात्रा बढ़ने लगती है। शरीर में ऐसा कोई सिस्टम नहीं है, जिससे आयरन स्वत: बाहर निकल जाए। आयरन बढ़ने से लिवर, हृदय पर दुष्प्रभाव होने लगता है। हालांकि, आयरन की मात्रा को नियंत्रित करने के लिए कुछ दवाएं दी जाती हैं।
सामान्य से गंभीर कैसे बन जाती है यह बीमारी
वैसे तो थैलेसीमिया की बीमारी माता-पिता से बच्चे में आती है, लेकिन सिंगल जीन होने के कारण माता या पिता को खास समस्या नहीं होती। इसे बीटा थैलीसीमिया माइनर कहते हैं। हालांकि दोनों के ही माइनर जीन बच्चे में आ जाने से थैलेसीमिया मेजर हो सकता है। जन्म के छह महीने के भीतर ही यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर में हीमोग्लोबिन नहीं बन पा रहा है। अगर उन्हें अगर रक्त नहीं चढ़ाया गया, तो उनका बचना मुश्किल हो जाता है। उन्हें जीवित रखने और उनके विकास के लिए नियमित अंतराल पर पीआरबीसी यानी रेड ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरूरत होती है।
कितना अलग है सिकल सेल एनीमिया
यह भी रक्त की कमी से जुड़ी बीमारी है। अंतर यही है कि थैलेसीमिया मेजर में खून बिल्कुल भी नहीं बनता, जबकि सिकल सेल एनीमिया में खून बनता है, लेकिन रक्त में वंशानुगत विकार होने से हीमोग्लोबिन की कोशिकाओं की क्षमता कम हो जाती है। इससे शरीर के तमाम अंगों तक आक्सीजन नहीं पहुंच जाता है। कई बार इसमें छोटी-छोटी रक्त वाहिकाएं अवरुद्ध हो जाती हैं। इससे शरीर के किसी खास हिस्से में दर्द की समस्या उभरने लगती है। कई बार हड़्डियों, सीने या पेट में दर्द होने लगता है। गंभीर सिकल सेल में मस्तिष्क आघात यानी ब्रेन स्ट्रोक हो सकता है।
क्यों होती है हीमोग्लोबिन की कमी
देश में हीमोग्लोबिन की कमी या एनीमिया की समस्या बहुत सामान्य है। ज्यादातर लोगों में यह पोषक तत्वों की कमी या ब्लड लास के कारण होती है। महिलाओं में खासकर माहवारी में ज्यादा रक्त बहने और आयरन की कमी से एनीमिया हो जाता है। इसी तरह बच्चों में भी आयरन की कमी होने की आशंका रहती है। विटामिन बी12, फोलिक एसिड की कमी भी खून की समस्या का कारण बनती है।
इन बातों का रखें ध्यान
-भोजन में प्रचुर आयरन वाले खाद्य पदार्थों को शामिल करें।
-हमारे देश में ज्यादातर लोग शाकाहारी हैं, ऐसे लोगों को आयरन युक्त भोजन पर ध्यान देना चाहिए।
– भोजन में हरी पत्तेदार सब्जियां, अनाज, दालें और गुड़ को जरूर शामिल करें। अंडे में आयरन की प्रचुरता होती है।
-साफ्ट ड्रिंक/कोल्ड ड्रिंक्स, चाय-काफी से थोड़ा परहेज करें।
-भोजन के तुरंत बाद चाय-काफी या दूध पीने से खाने मिश्रित आयरन युक्त तत्वों को शरीर ग्रहण नहीं कर पाता।
रक्त की कमी के और भी हैं कारण
आवश्यक नहीं कि पोषणयुक्त खाने की कमी से ही आयरन कम हो जाए, इसके दूसरे कारण भी हैं। बहुत से लोगों में खून कम बन रहा होता है। कुछ महिलाओं में ब्लीडिंग की समस्या रहती है। उन्हें आयरन की कमी हो जाती है। ऐसे लोगों को गाइनोकोलाजिस्ट या फिजिशियन से अवश्य परामर्श करना चाहिए।
सप्लीमेंट से दूर हो सकती है आयरन की कमी!
आयरन की कमी होने पर आयरन टैबलेट या सस्पेंशन सीरप लेने का परामर्श दिया जाता है। इससे ज्यादातर लोगों की हीमोग्लोबिन की कमी पूरी हो जाती है। लेकिन कुछ लोगों में इसके दुष्प्रभाव भी होते हैं। इससे गैस या कब्ज की समस्या हो सकती है। ऐसे लोग सप्लीमेंट नहीं ले पाते। उनके लिए इंजेक्शन के रूप में आयरन उपलब्ध है, जो सुरक्षित माना जाता है।
बोन मैरो ट्रांसप्लांट है एक बेहतर विकल्प
आज बोन मैरो ट्रांसप्लांट के माध्यम से बीटा थैलीसीमिया मेजर का भी इलाज संभव है। यही एक तरीका है, जिससे इस बीमारी को जड़ से खत्म किया जा सकता है। अगर सही डोनर मिल जाए, तो इससे प्रभावी उपचार किया जा सकता है। किसी कारण से मैच या डोनर नहीं मिल पा रहा है, तो बच्चों को उचित और सुरक्षित रक्त मिलना आवश्यक है। सरकारी मदद और थैलीसीमिया सोसाइटी से काफी हद तक सुरक्षित रक्त उत्पाद उपलब्ध कराए जा रहे हैं। बढ़े आयरन को शरीर से निकालने के लिए किलेशन थेरेपी की जाती है। नियमित रक्त चढ़ाने और उचित किलेशन से पीड़ित व्यक्ति लंबे समय तक गुणवत्तापूर्ण जीवन जी सकते हैं।
डा. नितिन गुप्ता
सीनियर कंसल्टेंट, हेमेटोलाजी एवं बोन मैरो ट्रांसप्लांट, सर गंगराम हास्पिटल, नई दिल्ली