उर्मिल कुमार थपलियाल
होली का राजनीतिक रंग यही है कि संसद में जिसे देखो, अंखियों में रेशमी डोरे डाले निर्दलीयों को रिझा रहा है। इंद्रधनुषी सरकार भी होली के बाद बदरंगी हो जाती है। होली की आग ठंडी पड़ते ही बुआ होलिका कपड़े झाड़कर आग के कुंड से बाहर निकलकर तब की फायर प्रूफ लेडी सिद्ध हो जाती है। प्रह्लाद पूरे साल सच का कटोरा लिए भटकता है, पर उसे राम मंदिर नहीं मिलता। अत: उसे राजनीतिक शरण लेनी पड़ती है।
होली के मौसम में सरकारी स्वांग न हो, तो कोई भी प्रक्रिया सांविधानिक बुराई जैसी लगने लगती है। यही दिन हैं, जब संसद या विधानसभाओं में राष्ट्रपति या राज्यपालों के अभिभाषण पूरे नहीं पढ़े जाते। अंतिम पृष्ठ पढ़ने के साथ ही उन्हें पढ़ा हुआ मान लिया जाता है। मिली-जुली सरकार अगर देखनी हो, तो किसी बड़ी नांद में अबीर, गुलाल, पीले-काले-नीले रंग, अबरक, तारकोल, कीचड़, गोबर, सफेद पेंट और काली स्याही मिलाकर गंदे पानी में फेंट दो। लो, मिली-जुली सरकार बन जाती है। रंग में भी और तासीर में भी।
अपने लड़कपन में पूरी होली तक मेरा मन फाग सुनते ही बिरजू महाराज होने लगता था। हम निठल्ले औघड़ भी राग-सारंग चिंघाड़ने लगते थे। हमे मिर्गी तो कई बार आई, लेकिन आंगन में मृग नहीं आए। कामचोरों और निठल्लों के भीतर इन्हीं दिनों लखनऊ में कई वाजिद अली शाह अंगड़ाई लेने लगते हैं। लखनवी भंडै़त कमर में घुंघरू बांधकर नाचते हैं कि- ऐसी होली खेलें जनाब अली। कैसरबाग में रंग बन्यो है, भीगे चौक की गली-गली।
होली में चूंकि हमारे यहां बत्तमीजी बुरी नहीं मानी जाती, इसलिए लंपटों और मनचलों का मन करता है कि कोई आए और वे उनके कपड़े फाड़ दें। उनका पूरा कस-बस निकाल दें। सारी नसें तोड़कर रख दें। लखनऊ में तो मलिहाबाद से सारी कोयलें ठेके पर बुलवा ली गई हैं। सरकार खुद तबला लिए बैठी है। गधे और घोड़े सब बराबर फगुनिया दुलत्ती झाड़े हैं। कुछ तिरछे हैं, तो कुछ आड़े हैं। अब आगे-आगे देखिए होता है क्या? अभी तो भांग घोटी जा रही है।